बस कल शाम की ही तो बात है। मै उतराखडढ मॆ लेडसडाउन सॆ हरिदवार होता हुा पचकुला वापस आ रहा था। अमबाला कैट सटेशन पर दो घटे बाद अगली गाडी थी। सधय़ा के 8 बजे थे। भूख भी लग रही थी।
बहुत खोजने पर भी सटेशन पर कोई refreshment room नजर नही अय़ा। भूख अर तेज हो गयी। बिना बात के मै खीजने लगा। तभी मुझे याद आई पुरण सिंह के ढाबे की. बहुत साल पहले मैने वहां खाना खाया था और वह स्टेशन के पास ही था. लेकिन इस दौरान में वहां स्टेशन के पास फ्लाई ओवर बन गया है. मैने सोचा की जीभ के स्वाद के चक्कर में मैं सड़क पार करता ऊपर ही न पहुँच जाऊं. लेकिंग पेट की भूख और जीभ के स्वाद ने मेरी अकल पे पर्दा डाल दिया और मैंने उस ढाबे पे जाने का निश्चय कर लिया. एक कुली से पुछा की पुरण सिघ का ढाबा कहाँ है? उसने मेरी टर्फ देखा, मेरी उम्र को देख और एक बढ़िया सलाह मुफ्त में डे डाली. 'अंकल जी है तो वह सड़क के उसपार लेकिन आप इस अंधेरे मे ट्रैफिक से भरे हुई दो सड़के पiर नहीं कर पाओगे. एक रिक्शा कर लो- उसने कुछ शरारत भरे लहज़े में कहा.
एक रिक्शा वाला जो पास खड़ा बात सुन रहा था बोला, चलो अंकल जी में ले चलता हूँ पुरण सिघ के ढाबे. कितने पैसे, मैने पुछा. बीस रूपए, वह बोला और में छलांग लगा कर रिक्क्षे में जा बैठा.
दो सड़कें पार करने में रिक्क्षा को सिर्फ दो मिनट लगे. वहां का दृश्य देख कर में आश्चर्य चकित रह गया. वहां 'पुरण सिंह के नाम के कोई आधा दर्जन ढाबे थे- कोई 'असली', कोई 'पुराना' तो कोई 'असली पुराना' पूर्ण सिंह का ढाबा और एक 'पूर्ण सिंह का मशहूर ढाबा'. हर ढाबे के एजेंट सड़क पर से मुझे बुलाने लगे- 'अंकल जी इधर आइये' ' आ जाओ जी' और 'बजुर्गो ऐथे आओ जी' वगैरा, वगैरा.
मैने एक ढाबे को चुना और एक टेबल पे जा बैठा. वेटर ने फटाफट यह प्लेट मेरे सामने रख दी.
मैने पीली दाल तड़का और हाफ प्लेट मिक्स्ड वेजिटेबल का आर्डर दिया जो शीघ हे दो तंदूरी रोटियों के साथ आ पधारी.
खाना गरमा गर्म और मिर्चों से भरपूर था. मैने 'सी- सी' करते खाना खाया. जब बिल माँगा तो लड़के ने एक छोटी सी पर्ची पर ११०/- रुपया लिख कर मुझे थमा दिया.
मैने पैसे दिये और बिना कुछ सोचे समझे एक हाथ में सूटकेस और पीठ पर backback डाल के दोनों ट्रैफिक से भरपूर सड़कें पार कर के स्टेशन के अंदर पहुँच गया... ...
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